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मंगलवार, 6 मई 2014

राजनीति - राजनीति

आजकल के इस चुनावी माहौल मे कई लोगों के कई रंग देखने को मिल रहे है।  जैसे पिछले दिनों शुरू हुई नमो और प्रियंका कि ही ज़ंग देख ले।  मुझे ऐसा लग रहा है कि मुझे ये सब कुछ अपने नज़रियें से भी देखना चहिये कि कौन कैसा है।  मैं एक अदना सा आम आदमी हूँ ( सच्ची मुच्ची वाला आम आदमी "आम आदमी पार्टी" वाला नहीं :) )  और मुझे भी ये सोचने का हक़ है कि मेरे देश की राजनीति ओर जा रही है।
भाजपा ने प्रधानमंत्री पद लिये श्री नरेन्द्र मोदी जी को प्रस्तुत किया है और मोदी जी के पास एक अच्छा राजनैतिक अनुभव भी है । मेरे हिसाब से ये अनुभव उन्हे बहुत फ़ायदा दिला सकता है या यूं  कहे कि दिला रहा है।  लेकिन उनके द्वारा किये कुछ कटाक्ष मुझ जैसे आम आदमी को उनसे दूर भी कर देते है।  हाल ही में जब प्रियंका जी ने " नीच राजनीति" शब्द का प्रयोग किया तब मेरे आम दिमाग मे ये बात आयी कि वो "निम्न या निचले या स्तरहीन राजनीति" की बात कर रही है लेकिन मोदी जी ने उस बात को जातिगत मोड़ दे दिया।  मुझे आश्चर्य है कि विकास के नाम पर सरकार को हर समय घेरने वाले और विकास के नाम पर वोट मांगने वाले व्यक्ति को जातिगत सहानभूति क्यों चाहिए??? या फिर उनको भी लगता है कि हम लोग सिर्फ़ जाति आधारित वोट करते है?? वैसे मोदी जी ने स्मृति ईरानी का  सही उपयोग किया है।  यदि वो जीती तो मोदी को एक बड़े कॉम्पिटिटर कि टेंशन खत्म हो जाएँगी और स्मृति जी से उन्हे राजनैतिक खतरा तो है नहीँ कि उनको बड़ा पद देना पड़े और पड़ा भी तो किसी आयोग का प्रमुख बना देंगे और हार गयीं तो गुज़रात मे जो सालों पहले स्मृति ज़ी ने बोला था उसका हिसाब लेने का मौका मिल जायेगा।  याने चित भी मेरी और पट भी मेऱी। वैसे स्मृति जी से पूछना चाहिए की "चांदनी चौक" से हारने के बाद वो वहाँ कितनी बार गयी थी और अगर गयी थी तो वहाँ से दूबारा चुनाव लड़ने कि हिम्मत क्योँ नहीं जुटा पाई?
मुझे आश्चर्य होता है भाजपा के कई नेताओं पर कि वो या तो पार्टी की अंधरुनी राजनीति क शिकार हो रहें है या अति-आत्मविश्वास उन्हे ले डूब रहा है । जेटली जी इसका एक बड़ा उदाहरण है क्योंकि ज़ीवन भर दिल्ली की राजनीति मे रहने के बाद अपना पहला लोकसभा चुनाव अमृतसर से लड़ने का क्या तुक है??????
राहुल जी कि जितनी बात की जाये कम ही है।  देश की सबसे पुरानी पार्टी मे  नंबर २ की हैसियत रखते है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर खुद कि पहचान नहीं बना पाए है अब तक।  मुझे जो कारण नज़र आये है जिनके चलते राहुल जी कि राह मुश्किल है, उनमे के प्रमुख है उनकी अनुभवहीनता।  मुझे लगता है जब यूपी या दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुये थे तब उन्हे खुद को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने चाहिए था और यदि यूपी मे इस आधार पर कि "आप मुझे जिताओ और राज्य का मुख्यमंत्री बनवाओ", कांग्रेस यूपी मे अपना खोया जनाधार वापिस पा सकती थी लेकिन आप तो शह्जादें नहीं नही युवराज हो और ये युवराजगीरी आपको अब ले डूब रही है।  यूपी में तो कांग्रेस के पास अभी अच्छा नेतृत्व भी नहीं है।  दिल्ली में तो शीला जी नहीं जमने देंगीं।
अब बात करें केजरीवाल जी की। केजरीवाल जी एक ऐसे शख्स है जिन्होने इस देश की जनता में एक नयी उम्मीद जगाई और जगा कर बुझा भी दी।  एक मौका मिला था काम करने का उस मौके को अपने बालहठ के चलते गवां दिया।  वैसे उनका नरेंद्र मोदी जी को टक्कर देने क प्रयास काबिल ए तारीफ़ है लेकिन अब नाकाफ़ी है क्योंकि जनता मे उनकी भगोड़े वाली छवि बन गयी है।
मेरे मन में कुछ सवाल ऐसे है जिनके जवाब मुझे शायद ही कभी मिले, जैसे, "नरेंद्र मोदी दो जगहों से क्यों लडे, क्या इसका सही कारण वो कभी बता पाएंगे???" या "नरेंद्र मोदी सुरक्षित सीट से ही चुनाव क्योँ लडे, क़्या उन्हे हार जाने का  डर है????" । "राहुल गांधी ने मौका होते हुये भी अनुभव लेने कि कोशिश क्यों नहीं की ???" या "उनके अपने नहीं चाहते की वो कोइ अनुभव ले???"।
  मुझे लगता है कि मोदी जी को अति-आत्मविश्वास से, राहुल जी को चाटुकार लोगों से और केजरीवाल जी को दोनों से बचने की जरुरत है । मोदी जी जाति पर नहीं विकास पर वोट मांगिये क्योंकि अगर किसी भी कारण से "अबकी बार मोदी सरकार" नहीं बन पायी तो आपकी वापसी मुश्किल हो जायेगी, आडवाणी जी का हश्र तो आप देख ही चुके है । राहुल जी अब आपकी पार्टी का जाना तय है तो आत्ममंथन करें और अपनी पार्टी के कुछ बड़बोले लोगों से सावधान रहें । केजरीवाल जी आप चने के झाङ पर चढ़ना बन्द कर दें और हकीकत की दुनिया मे रह कर काम करें ।

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