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सोमवार, 24 दिसंबर 2012

सचिन...

आख़िरकार सचिन रमेश तेंडुलकर ने एकदिवसीय अन्तराष्ट्रीय क्रिकेट को कल अलविदा कह दिया । ये तो एक ना एक दिन होना ही था लेकिन मन अभी भी मानने को तैयार नहीं है कि सचिन एकदिवसीय क्रिकेट नहीं खेलेगा । मुझे तो ये सुन कर ऐसा लगा जैसे 23 दिसम्बर 2012 वो दिन है जिस दिन एकदिवसीय क्रिकेट ने अपनी पहचान खो दी है । मेरे लिए तो बिना सचिन के एक दिवसीय देखना मतलब बिना नमक के खाना खाने जैसा होगा ।
23 साल 463 एकदिवसीय 18426 रन्स और 49 शतक, ये वो आंकडें है जिन्हें छूना आसान नहीं होगा । 23 साल तक एक जज़्बे को पूरी निष्ठां के साथ जीना कोई आसान काम नहीं है । वैसे तो सचिन को कुछ शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है किन्तु टाइम मैगज़ीन का यह कहना कि "We can get great players, we can get champions but we cant get another SACHIN TENDULKAR " बहुत सही टिप्पणी है । सचिन सिर्फ सचिन ही हो सकते है कोई और नहीं ।
सचिन ने अपने एकदिवसीय करियर में जो मुकाम बनाये है कई बार तो वो खुद भी उन तक नहीं जा पाते थे तो हम किसी और से ये उम्मीद भी कैसे रह सकते है, सचिन को तो सिर्फ सचिन ही टक्कर दे सकते है और कोई नहीं । 4 साल की उम्र में बल्ला पकड़ने वाले शख्स ने अभी तो क्रिकेट के एक प्रारूप को अलविदा नहीं कहा है लेकिन आप सोचो जब वो ये कह देगा कि बस अब और क्रिकेट नहीं, तब तो क्रिकेट के कलयुग की शुरुआत हो जायेगी क्योंकि क्रिकेट के भगवान् उससे दूर हो जायेंगे ।
23 साल तो सिर्फ अन्तराष्ट्रीय क्रिकेट के हुए है अगर हम देखे तो सचिन तो इस खेल को पिछले 35 सालों से खेल रहे है और आज जब एकदिवसीय प्रारूप को ना बोल रहे है तब भी सिर्फ इसलिए ताकि उनका स्थान कोई और ले सके और इस बात को कोई नहीं नकार सकता है की हम टीम में तो उनका स्थान भर देंगे लेकिन क्या वाकई कोई उनका "रिप्लेसमेंट" हो सकता है?
अंततः मैं सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि मैं उन भाग्यशाली लोगों में शामिल हूँ जिन्होंने सचिन को एकदिवसीय खेलते देखा है ।
Sachin we really miss you a lot...
सोमवार, 17 दिसंबर 2012

पता नहीं क्या चाहता हूँ ...

आजकल मेरी ज़िन्दगी बड़ी उआह-पोह भरी चल रही है । मुझे नहीं पता क्यों बस चल रही है और मैं भी उसके साथ चलने की कोशिश कर रहा हूँ । कभी-कभी हमें नहीं पता होता है की हम जो कर रहे है वो क्यों कर रहे है और जो कर रहे है, क्या वाकई वो करना चाहते है???
व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है की हम मनुष्य प्रजाति का अनुसरण करते है और हमें निरंतर आगे बढते रहना चाहिए लेकिन मेरे आस-पास बहुत से ऐसे लोग है जो ये सोचते है कि हमें संतुष्ट हो जाना चाहिए । मेरे लिए संतुष्टि का अर्थ अंत है क्योंकि अगर हम आगे नहीं बड़े तो हमारा मनुष्य होना बेकार है ।
मैंने कहीं पढ़ा था कि "खुद पर भरोसा करना सीखना है तो चिड़ियाओं से सीखो क्योंकि जब वो शाम को घर लौटती है तो उनके पास कल के लिए दाना नहीं होता है", मैंने सोचा की मैंने यदि ऐसा किया तो मुझे दिहाड़ी मजदूर ही माना जायेगा और वो तो 26 रूपये में ही जीवन जीता है (भारत सरकार के आंकड़ो के अनुसार )।
 ज्ञान की चार बातों के बाद अब हम मुद्दे की बात करते है की मैं क्या कर रहा हूँ या मैं क्या करना चाहता हूँ । मैं क्या करना चाहता हूँ की बात करे तो मुझे यही लगता है की मैं जो कर रहा हूँ कम से कम मैं वो तो नहीं करना चाहता हूँ क्योंकि मैं अंतर्मन से खुश नहीं हूँ मुझे खुश होना पड़ रहा है और मैं खुश होना चाहता हूँ न की पड़ना चाहता हूँ और जब आप खुश होते हो तब ही आप संतुष्ट हो सकते हो।
आजकल खुश होना सीखना पड़ता है लेकिन मैं नहीं मानता की खुश होना सीखने वाली बात होती है, ये तो एक ऐसी प्रक्रिया है जो स्वत होना चाहिए और ये बात आप किसी भी छोटे बच्चे से जान सकते हो । किसी भी छोटे बच्चे को खुश होने के लिए छोटी सी वजह भी बहुत होती  है क्योंकि वो बस खुश है और क्यों खुश है वो नहीं जानता है वो तो बस ये देखता है की उसके आस-पास सब खुश है और मुस्कुरा रहे है तो उसको भी यही करना है ।
आप लोग सोच रहे होगे की ये बंदा आखिर बोलना क्या चाह रहा है??? कभी ये बोलता है कभी वो बोलता है, बस मुद्दे की बात ही नहीं कर रहा है, तो मैं आपको बताना चाहता हूँ की मैं इसी उआह-पोह से गुजर रहा हूँ कि आखिर मैं चाहता क्या हूँ???मेरे मन में अनेकों विचार एक साथ चल रहे है और "आर्ट ऑफ़ लिविंग" वालों ने कहा है की विचारों को रोको मत आने दो और मैं उनसे पूछना भूल गया की वो "रोको, मत आने दो" बोल रहे है या "रोको मत, आने दो" बोलना चाह रहे है????
आपको क्या लगता है अगर समय मिल सके तो बताइयेगा ...

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

अग्नि पथ

वृक्ष हों भले खड़े, हो घने, हो बड़े,
एक पत्र-छाह भी मांग मत, मांग मत, मांग मत
अग्नि पथ अग्नि पथ अग्नि पथ
तू न थकेगा कभी,
तू न थमेगा कभी,
तू न मुड़ेगा कभी,
कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,
ये महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है,
अश्रु श्वेत् रक्त से,
लथ पथ, लथ पथ, लथ पथ ,
अग्नि पथ अग्नि पथ अग्नि पथ
--हरिवंशराय बच्चन
ये कविता जब मुकुल एस आनंद ने सुनी थी तब उन्होंने अपनी निर्माणाधीन मूवी का नाम अग्निपथ रखने का निर्णय लिया था और श्री हरिवंश राय बच्चन जी से इस कविता को अपनी मूवी में इस्तेमाल करने की अनुमति भी मांगी थी ।
१९९० में प्रदर्शित "अग्निपथ" अमिताभ बच्चन की यादगार मूवीस में से एक है और इस बात में कोई दोराय नहीं हो सकती है की उन जैसा कोई नहीं है । मुझे कल नयी अग्निपथ देखने का मौका मिल गया अपने एक मित्र की वजह से तो मैंने सोचा चलो दान की बछिया के दांत नहीं गिनते है और बिना कोई पूर्वनियोजित धारणा के मैं मूवी देखने पहुँच गया ।
मैंने अमिताभ वाली अग्निपथ सिनेमा हॉल में ही देखी थी और कई बार टीवी पर भी देखने का मौका मिला था । ये वो अग्निपथ थी जिस पर चल कर अमिताभ को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था । नयी अग्निपथ के बारे में मुझे ठोड़ी बहुत जानकारी थी और वो ये थी की नया विजय दीनानाथ चौहान हृतिक है और नया कांचा संजय दत्त जो की एक बार फिर मांडवा को हासिल करने के आमने सामने है ।
फिल्म की शुरुआत में मुझे ये समझ आ गया की नयी और पुराणी अग्निपथ की एक समानता है की दोनों फिल्मों के नायकों का लक्ष्य एक ही है - पिता की मौत का बदला लेना और अपने गाँव को वापस हासिल करना । नयी अग्निपथ की शुरुआत और बेहतर हो सकती थी अगर निर्देशक मास्टर दीनानाथ चौहान को हलके में नहीं लेते । मास्टर दीनानाथ चौहान के चरित्र को और बेहतर अभिनेता और बेहतर तरीके से निभा सकता था और कुछ संवाद लेखन भी बेहतर किया जान चाहिए था मसलन "पहलवान" के स्थान पर "ताकतवर" शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए क्योंकि नायक को खलनायक से कुश्ती नहीं लड़ना थी वरन बदला लेना था ।
नयी अग्निपथ में मैंने एक चरित्र को मिस किया है और वो है "नाथू" जो की उस गाँव में मास्टर दीनानाथ के बाद विजय किया एक सच्चा समर्थक था । नयी अग्निपथ में विजय को गाँव वाले उसकी माँ के कारण पहचान पाए थे । नए गायतोंडे के रूप में ओम पूरी ने बहुत अच्छा काम किया है और ज़रीना वहाब ने भी माँ के छोटे से चरित्र को अच्छे से निभाया है और कहीं भी मिथुन दा के कृष्णन अईयर की कमी महसूस नहीं हुयी ।
हमें हृतिक से अमिताभ वाला टोन आपेक्षित नहीं करना चाहिए, दोनों की अपनी पहचान है और इसी कारण हमें ताकत पाने के तरीके की आलोचना नहीं करना चाहिए । हमें ये नहीं सोचना चाहिए की हृतिक भी अमिताभ की तरह हई करेगा । आज का विजय ताक़त पाने के लिए सिर्फ जोश का सहारा नहीं लेता है, वो आज की परिस्तिथि के अनुसार चल कर ताक़त हासिल करता है क्योंकि राउफ लाला (ऋषि कपूर) तरलिन, उस्मान भाई या अन्ना शेट्टी नहीं है । ऋषि कपूर ने राउफ लाला के चरित्र को एक अलग पहचान दी है जो काबिले तारीफ है ।
नयी अग्निपथ में शिक्षा (विजय की बहन) एक स्कूल जाने वाली लड़की है इसलिए उसकी लाइफ में कृष्णन अईयर की आवश्यकता नहीं है जो की मेरी नज़र में सही निर्णय है । नायिका के रूप में प्रियंका ने अच्छा काम किया है लेकिन इस कहानी में नायिका केवल नाचने गाने के लिए ही हो सकती है क्योंकि नायक अपना लक्ष्य उससे मिलने के पहले ही निर्धारित कर चूका है ।
अंत में केवल एक ही बात कही जा सकती है "This movie is not remake it is REPRESENTATION" (जयदीप सिंह गिरनार* जी से साभार ) इसलिए कृपया इसे हृतिक की अग्निपथ समझे अमिताभ की नहीं ।
* जयदीप सिंह गिरनार जी मेरे फेस बुक मित्र है और ९४.३ My FM में मुझे इनके साथ काम करने का मौका भी मिला है ।
मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

कृप्या अपने किये की जिम्मेदारी ले...

पता नहीं क्यों लेकिन आज तक मुझे एक बात समझ नहीं आई की हम अपने आप को सही साबित करने के लिए दूसरों को गलत क्यों साबित करना चाहते है | आज कल एक राजनेता ( वैसे तो लोग समय बचाने या आलस के कारण इस प्रजाति को नेता बोलते है किन्तु मैं राजनेता बोलना पसंद करता हूँ ) दूसरे पर भ्रष्टाचार का आरोप तो ऐसे लगाता है जैसे कोई प्रतियोगिता चल रही है और सबसे ज्यादा आरोप लगाने वाले को कोई पुरस्कार मिलने वाला है | मुझे अच्छे से जानने वाले ये बात जरुर जानते है की मैं कभी अपनी चीज़ को अच्छा कहने के लिए दूसरों की चीज़ को बुरा नहीं कहता हूँ क्योंकि मुझे लगता है हर व्यक्ति सौ फीसदी अच्छा या बुरा नहीं हो सकता है |
मेरा मानना यह है की अगर आपके पास कुछ है जो की आपकी नज़र में अच्छा है वो बाकि लोगों की नज़र में भी अच्छा हो ये जरुरी नहीं है और आपके पास जो है उसको अच्छा साबित करने के लिए दूसरों पर किसी तरह का आक्षेप लगाना गलत है | अगर हम खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए दूसरों को नीचा दिखाते है या साबित करने की कोशिश करते है तो कही न कही हम अपनी कमजोरी को छिपाना चाह रहे होते है |
हमें हमेशा ध्यान रहना चाहिए की "अह्म ब्रह्मास्मि" का परिणाम कभी सुखद नहीं हो सकता है क्योंकि स्वयं ब्रह्मा भी खुद को सर्वश्रेष्ठ नहीं मानते है | हम परमात्मा को एक शक्ति के रूप में पूजते है और कर्म और भाग्य में विश्वास भी करते है | कुछ लोग कर्म में विश्वास रखते है और कुछ भाग्य में , लेकिन अंततः हमें जुड़ना उस परमात्मा से ही है |
मैं व्यक्तिगत रूप से स्वयं को सिर्फ अपने ज़मीर के प्रति जवाबदेह मानता हूँ क्योंकि मुझे लगता है की मेरा ज़मीर मुझे मेरे भगवान् से जोड़ता है और अगर कोई शक्ति है जो आपके कर्मों का या आपके भाग्य का लेखा जोखा रख रही है तो वो आपके ज़मीर से आपका मूल्यांकन करवा रही है |
आजकल संचार साधनों के कारण हमें तुरंत पता चल जाता है की किसने किसके लिए क्या क्यों और कब कहा | मुझे लगता है की अगर हम किसी पर एक उंगली उठा रहे है तो बाकि तीन हमारी तरफ है इसलिए हमें किसी की बात से सहमत या असहमत होने का अधिकार तो है लेकिन उसको सही या गलत कहने का अधिकार नहीं है | हमें अपनी बात को मजबूती से रखना चाहिए बजाए दूसरों की बात को गलत साबित करने की कोशिश करने के...
शुक्रवार, 17 जून 2011

मेरा प्रेक्टिकल न होना...

जब भी मैं अपनी ३१ साला ज़िन्दगी का आंकलन करने की एक असफल सी कोशिश करता हूँ तब-तब मुझे एक बात बहुत परेशान करती है और वो है मेरा प्रक्टिकल न होना...
बचपन से मैं थोडा लीक से अलग चलने वाला बन्दा मानता रहा हूँ खुद को लेकिन जब-जब मैं खुद को अतीत के आईने में देखता हूँ तब-तब मेरा ये भ्रम टूट सा जाता है क्योंकि कहीं ना कहीं जब भी मैंने लीक से हट कर चलने की गुस्ताखी की है मेरे प्रयास को एक अति इमोशनल अंदाज़ में दबा दिया गया है और मैं खुद उस दबाव में आ गया हूँ क्योंकि मैं खुद को प्रेक्टिकल समझता तो हूँ लेकिन असलियत में तो मैं एक इमोशनल व्यक्तित्व का मालिक या यूँ कहे की गुलाम हूँ |
बचपन में जब भी मुझे कोई चाहत होती थी मैं अपने माता-पिता को बताने में हमेशा झिझकता था क्योंकि मेरे मन में हमेशा ये डर रहता था कि कहीं वो ना तो नहीं कर देंगे और अक्सर होता भी यही था | मुझे नहीं पता इस डर के पीछे कारण क्या था लेकिन ऐसा अक्सर होता था |
थोडा बड़ा हुआ तो मैंने आक्रामक रुख अपनाना चालू कर दिया और मन में एक बात को घर करने दिया कि जो आसानी से ना मिले उसे लड़ कर हासिल करो और कई बार मैं सफल भी हुआ लेकिन उस चाहत को पाने कि जो ख़ुशी मुझे महसूस होना चाहिए थी वो मुझे नहीं हो पायी क्योंकि मैं आक्रामक बन रहा था प्रक्टिकल नहीं...
अपने जीवन के कुछ बड़े फैसले मैं लेना चाहता था लेकिन मुझे नहीं लेने दिए गए, हर बार इस समाज कि दुहाई दे कर मेरे अरमानों को नज़र-अंदाज़ कर दिया गया | मैं फिर भी शायद किसी को दोष नहीं दे सकता हूँ क्योंकि गलती मेरी ही थी कि मैंने खुद के बारे में न सोच कर दूसरों के बारे में सोचा और जो खुद के बारे में नहीं सोच सकता है उसके बारे में तो आजकल भगवान्  भी नहीं सोचते है क्योंकि उन्होंने भी आजकल के हिसाब से अपने आप को अपग्रेड कर लिया है और वो भी प्रेक्टिकल हो गए है |
मैं आज जहां हु जिस स्थिति  में हूँ खुद को खुश नहीं रख पा रहा हूँ क्योंकि ये वो लाइफ नहीं है जो मैंने खुद के लिए सोची थी और अभी भी प्रेक्टिकल नहीं हो पा रहा हूँ कि इन परिस्थितियों में भी खुश रहना सीख सकूँ | आज कि दुनिया का एक बहुत महत्वपूर्ण सबक मैंने जो नहीं सिखा है कि या तो इमोशनल हो कर अपने अरमानों को एक संदूक में ताला मार कर गहरे समुन्दर में फेंक दो और वही करो जो दुसरे चाहते है या प्रेक्टिकल बन जाओ | आज कि दुनिया में मेरे जैसे त्रिशंकुओं के लिए कोई जगह नहीं है जिन्हें ये ग़लतफ़हमी है कि वो इमोशनल और प्रेक्टिकल के बीच एक पुल का काम कर सकते है और असल में हम जैसे लोग पुल नहीं त्रिशंकु होते है |